Saturday, April 8, 2017

नारी कब होगी अत्याचारों से मुक्त? +रमेशराज




नारी कब होगी अत्याचारों से मुक्त?

+रमेशराज

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धीरे-धीरे जिस पाश्चात्य अपसंस्कृति का शिकार हमारा समाज होता जा रहा है, उसके दुष्परिणाम स्त्री जाति पर अत्याचारों की बढ़ोत्तरी के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं। शहर ही नहीं गाँव-गाँव तक आज स्त्री जाति असुरक्षित और भयग्रस्त है। भय और असुरक्षा के कारण है- गली-गली बढ़ते कामासुर। कामासुरों को किसी और ने नहीं, पाश्चात्य-सभ्यता के पोषकों और जन-शोषकों ने पैदा किया है। पाश्चात्य सभ्यता के फैलाव में कोई और नहीं, हमारे राष्ट्र के वे नायक हैं, जो अपनी अकूत और काली कमायी के जरिए टी.वी. चैनल्स और अखबारों के मालिक बनकर समाज के सम्मुख सामाजिक-विघटन और सैक्स को परोस रहे हैं। सरकार के जनहित कार्यक्रमों में से एक प्रमुख कार्यक्रम बन गया है- शराब की दुकानें मोहल्ले-मोहल्ले खुलवाना। शराब में धुत, विचारहीन, भोगविलासी वर्ग क्या करेगा। वह हमारी बहिन-बेटियों को छेड़ेगा, सैक्स भरी फब्तियाँ कसेगा, बलात्कार करेगा।
संत रविदास, महात्मा फूले, स्वामी विवेकानंद, संत कबीर, गुरु नानक जैसे महापुरुषों के देश में आज हर एक मिनट बाद नारी बलात्कार, छेड़खानी या बलात्कार के बाद मौत का शिकार हो रही है और इस ज्वलंत समस्या पर देश की हर सरकार चैन की नींद सो रही है।
जनता के दुःखदर्दों में शरीक होने का ढोंग रचने वाले राजनेताओं में ऐसे अनेक नेताओं के अब चेहरे उजागर होने लगे हैं, जिनका हाथ चकलाघरों के साथ है। सैक्स रैकेट के संचालक ऐसे नेता नारी सशक्तिकरण की बात करते हुए किसी न किसी नारी का चीरहरण करने में लगे हैं।
कथित प्रगतिशीलता के इस दुष्चर्क में नारी सबला से अबला होती जा रही है। उसे अबला बनाने में पुरुष-सत्ता का बहुत बड़ा हाथ है। किन्तु इन सारी त्रासद स्थिति के लिये पुरुष समाज पर ही दोष मढ़ा जाना चाहिए? इस ज्वलंत सवाल को भारत की महान वीरांगनाएँनामक प्रस्तुक के लेखक आचार्य श्रीराम शर्मा की प्रकाशकीय में उठाया जाता है और इस सवाल का उत्तर कुछ इस प्रकार आता है-‘‘ नारी अपनी वर्तमान अधोगति के लिए बहुत कुछ स्वयं उत्तरदायी है। संसार की नारियों का इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण है कि मातृ शक्ति में अनंत शक्तियाँ निहित हैं। वह किसी बात में पुरुषों से कम नहीं है। वीरता, धीरता, शौर्य, पराक्रम, शासन-प्रशासन, त्याग, तप, बलिदान, विद्वता, शोध, अविष्कार आदि जीवन के विविध क्षेत्रों में मातृशक्ति ने कीर्तिमान स्थापित किये हैं। लज्जा, कोमलता, भीरुता आदि नारी के आभूषण हैं, किन्तु जब-जब आवश्यकता पड़ी है, उसने अपने इस बानक को उतार फैंका है और ज्वाला बनकर प्रकट हुई है।’’
नारी को ज्वाला में तब्दील होते दामिनी-प्रकरणपर जंतर-मंतर पर पिछलों दिनों देखा गया। नारी-शक्ति के सम्मुख केन्द्र सरकार की सारी चूलें हिली भी थीं और नारी के पक्ष में नये कानून भी बने। इन्हीं कानूनों का सहारा लेकर आज नारी बलात्कार-छेड़खानीजैसे मुद्दों पर मौन न रहकर मुखर है।
किन्तु काँटे का सवाल यह भी है कि इस जगी नारी-शक्ति के बीच शराब के ठेके’, विज्ञापन और फैशन शो में बढ़ता नारी का अश्लील अंग प्रदर्शन पिक्चर हॉलों में दिखाये जाने वाले ब्लू फिल्मों के टुकड़े, या नारियों द्वारा संचालित गुप्त चकलाघरजब तक नारी-शक्ति के विरोध के सवाल बनकर सुर्खियों में नहीं आते, तब तक न अत्याचार, व्यभिचार को समाप्त किया जा सकता है और न बलात्कार से मुक्ति पायी जा सकती है।
नारी प्रगतिशील, विचारशील बने, लेकिन अंगों की नुमाइश को बन्द करे तो कामासुर का आतंक स्वतः समाप्त होने लगेगा।
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सम्पर्क-15/109, ईसानगर, अलीगढ़
मोबा.- ९६३४५५१६३०


अमर स्वाधीनता सैनानी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद +रमेशराज




अमर स्वाधीनता सैनानी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

+रमेशराज
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राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अब सीमेंट, यूरिया, आदर्श सोसायटी, 2 जी स्पेक्ट्रम, कामन वेल्थ गेम घोटालों के लिये विख्यात हो चुकी  है। काली करतूतों जैसे तस्करी, घोटालों और देशद्रोह में लिप्त रहने वाले कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के ठीक विपरीत राजेन्द्र बाबू जनता के सच्चे हमदर्द थे। जातिवाद या सांप्रदायिकता का भाव उन्हें छू भी नहीं सका था। ईमानदारी की ऐसी मिसाल कि जिस पर हर भारतीय गर्व कर सकता है।
एक ठेठ किसान जैसे दिखने वाले, तन पर खद्दर के सफेद वस्त्र, बेहद सीधे-सादे, भोले-भाले, अपने आप में पूरी तरह निराले राजेंद्र बाबू में सच्चाई, विनम्रता और सेवाभाव कूट-कूट कर भरे थे। ऐसे व्यक्तित्व के आगे कौन नतमस्तक नहीं होना चाहेगा? राजेन्द्र बाबू ने न तो कभी अन्याय के सम्मुख अपना सर झुकाया और न कभी उस वर्ग के पोषक या हिमायती बने, जो जनता का शोषण करता है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में देश का गौरव बढ़ाने वाले डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब वकालत की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तभी उन्होंने बिहारी विद्यार्थी सम्मेलनमें सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके भाषण देने की कला और जोशीले विचारों की चर्चा पूरे देश में होने लगी।
राजेन्द्र बाबू दीन-दुखी, असहाय, पीडि़तों की सेवा को ही सर्वोपरि धर्म मानते थे। अतः जब भी उन्हें मानवीय क्रन्दन सुनायी देता, वे करुणाद्र हो उठते। असहायों की सहायता करने के लिये वे तुरत मैदान में कूद पड़ते।
गांधीजी के इस अहिंसक सैनिकका जन्म बिहार के जीरादेई गांव में हुआ। बंगाल के बड़े-बड़े प्रोफेसर उस समय बिहार को बौद्धिक रूप से दरिद्रमानते थे। राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी की समस्त कक्षाओं में सर्वप्रथम आकर सभी को चकित कर दिया। जगदीश चन्द्रबोस और प्रफुल्लचन्द्र राय जैसे यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध प्रोफेसरों ने उस समय टिप्पणी की कि-‘‘ राजेन्द्र बाबू ऐसा होनहार विद्यार्थी है कि उसे अध्यापक कभी भुला नहीं सकेंगे।’’
विद्यार्थी जीवन में ही अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देने वाले राजेन्द्र बाबू ने जब देखा कि नील की खेती करने वाले अंग्रेज जमींदार गरीब किसानों पर अत्याचार कर रहे हैं तो वे उनके विरुद्ध किसानों को संगठित करने लगे। उन्होंने चम्पारन में उन जमीदारों के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन तेज कर दिया जो आम कृषकों को लूटकर मालामाल हो रहे थे। चम्पारन सत्याग्रह के दौरान ही राजेन्द्रबाबू का परिचय गांधीजी से हुआ।
सन् 1927 में जब साइमन कमीशन भारत आया तो उसके विरोध में एक तरफ जहां लाला लाजपत राय, भगत सिंह आदि ने उग्र प्रदर्शन किया, लाठियां खायीं, वहीं राजेन्द्र बाबू ने 25-30 हजार कार्यकर्ताओं के साथ साइमन कमीशन को काले झंडे दिखाकर यह सिद्ध कर दिया कि बिहार भी उनके नेतृत्व में उस हर काले कानून की विरोधी है जो जनता के शोषण के लिये लाया गया है या लाया जा रहा है।
1929 में कांग्रेस ने जो पूर्ण स्वतंत्रताका प्रस्ताव पास किया, उसे पास कराने में राजेन्द्रबाबू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1930 में नमक तोड़ोसत्याग्रह आंदोलन के वे अग्रणी सिपाही रहे।
1934 में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में जब राजेन्द्र बाबू को सभापति के बाद अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने कांग्रेस के शिथिल संगठन को गति ही प्रदान ही नहीं की, बल्कि किसानों की दशा सुधारने के अनेक प्रयास किये। बिहार और संयुक्त प्रान्त के मजदूरों में उन दिनों भयंकर असंतोष व्याप्त था। कानपुर और डालमिया नगर में महीनों से हड़ताल चल रही थी। राजेन्द्र बाबू ने लेबर कमीशन का प्रधान बनकर समस्या को सुलझाने का प्रयास किया, जिसमें वे किसी हद तक सफल भी हुए।
अगर यह कहा जाये कि 1942 के अंग्रेजो भारत छोड़ोआन्दोलन का केन्द्र इलाहाबाद से लेकर मुंगेर और भागलपुर था, तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी। यदि यह भी कहा जाये कि 1942 में समस्त भारत में स्वाधीनता संग्राम का कार्य जितना सम्पूर्ण भारत में हुआ था, उतना अकेले बिहार और उससे सटे हुए बलिया, गाजीपुर, बस्ती आदि जिलों ने कर दिखाया तो इसका श्रेय भी राजेन्द्र बाबू के नेतृत्व को जाता है।
वास्तव में राजेन्द्र बाबू उन महान आत्माओं में से एक थे जिन्होंने अपने प्राण हथेली पर  रख, समाज को एक नयी दिशा दी। गांधीवादी युग के कांग्रेसी नेताओं के बीच वह अविवादास्पद, चरित्रवान और अतुलनीय होने के कारण ही सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद पर चुन लिये गये। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने हिन्दी के समर्थन में जिस प्रकार खुलकर बोला, वह भी सतुत्य है।
राजेन्द्रबाबू का समस्त जीवन-काल अनुकरणीय और प्रेरणास्पद है। राजनीति से निरंतर होते नैतिक मूल्यों के ह्रास ने उस कांग्रेस को आज घोटालेबाजों की श्रेणी में ला दिया है, जिसे राजेन्द्र बाबू ने नैतिकता की मिसालके रूप में पहचान दी थी।

                -15/109 ईसानगर, अलीगढ़

‘निराला’ का व्यवस्था से विद्रोह +रमेशराज




निरालाका व्यवस्था से विद्रोह

+रमेशराज
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क्रान्तिकारी, फक्कड़ और निर्भीक महात्मा कबीर के बाद यदि कोई कवि उनके समतुल्य, व्यवस्था-विरोधी, साहसी और नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि मानकर, उनकी स्थापनार्थ संघर्षरत रहा है तो वह नाम है-महाप्राण सूर्यकांत त्रिापाठी निराला
निरालाएक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने गुलाम हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के दमनचक्र में पिसती, सिसकती, विलखती जनता को जार-जार और तार-तार होते देखा है तो स्वतंत्रता के बाद के काल के शासकों की वे कुनीतियां भी महसूस की हैं, जो अंग्रेजों के साम्राज्य-विस्तार का आधार थीं। स्वतंत्र भारत के अपने ही शासन में, अपने ही शासकों के चरित्र से अकेले निरालाका ही मोहभंग हुआ हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है। रामधारी सिंह दिनकर’, सुमित्रानंदन पंत जैसे उनके समकालीन कवि भी कांग्रेस और गांधीजी की कथित अहिंसा और थोथे समाजवाद के व्यामोह से छिटककर वास्तविकता के उस धरातल पर आ जाते हैं जहां आजादी और सामाजिक समरसता का सपना चूर-चूर होकर बिखर जाता है। दिनकर कह उठते हैं-
‘‘ अबलाओं को शोक, युवतियों को विषाद है
बेकुसूर बच्चे अनाथ होकर रोते हैं
शान्तिवादियो! यही तुम्हारा शांतिवाद है?’’
सुमित्रानंदन पंत उस समय के कांग्रेसी चारित्रिक पतन को एक व्याधि के रूप में इस प्रकार उजागर करते हैं-
‘‘ धिक यह पद-मद शक्ति मोह! कांग्रेस नेता भी
मुक्त नहीं इससे-कुत्तों से लड़ते कुत्सित
भारत माता की हड्डी हित! आज राज्य भी
अगर उलट दे जनता, इतर विरोधी दल के
राजा इनसे अधिक श्रेष्ठ होंगे? प्रश्नास्पद!
क्योंकि हमारे शोषित शोणित की यह नैतिक
जीर्ण व्याधि है।’’
मुद्दा चाहे भ्रष्टाचार का हो या आजादी के बाद आये कांग्रेस के उस असली शोषक, अनैतिक, कायर और भोगविलासी आचरण के उजागर होने का हो, जिसे देखकर उस समय कई कवि आशंकित ही नहीं, क्षुब्ध और आक्रोशित हो उठे थे, इन कवियों से अलग निरालाकी प्रतिक्रिया बेहद तीखी, मारक और व्यवस्था के प्रति विद्रोह से भरी हुई, उनकी कविताओं के माध्यम से स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। मुद्दा चाहे हरिदास मूंदड़ा के भ्रष्टाचार का हो या हिन्दी-चीन भाई-भाईके नारे के बाद हुए भारत पर चीन के आक्रमण का, इन सभी मुद्दों पर वे कांग्रेस की शासन-प्रणाली को असफल मानते हुए इसके लिये जिम्मेदार केवल नेहरू को ठहराते हैं। प्रतीकों के माध्यम से निरालाजीकी सशक्त कलम से प्रसूत उनकी बेला’, ‘नये पत्तेऔर कुकुरमुत्ताशीर्षक रचनाओं में कांग्रेस की दोहरे चरित्र और घृणित मानसिकता की झलक देखते ही बनती है। उनकी कुकुरमुत्तानामक रचना दलित वर्ग की प्रतिनिधि कविता है, जिसकी व्यंग्यात्मक शैली उस शोषक चेहरे की पर्तें उधेड़ती चली जाती है जो समाजवाद का मुखौटा लगाकर जन-जन के बीच लोकप्रिय और ग़रीब जनता का सच्चा हितैषी बनना चाहता है। निरालाइस शोषक चेहरे को पहचान कराते हुए उसे इस प्रकार धिक्कारते हैं-
अबे सुन बे गुलाब
भूल मत गर पायी खुशबू, रंगो-आब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट।
जिस चारित्रिक पतन से आज कांग्रेस गुजर रही है, उसका वह निर्मम आचरण बढ़ती महंगाई, हवाला कारोबार, 2 जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी, काॅमनवेल्थ गेम के घोटालों के रूप में सामने आ रहा है। कांग्रेस की जनता का शोषण कर अकूत सम्पत्ति अर्जित करने की ललक या कुत्सित इच्छा को निराला ने नेहरूकाल में ही भांप लिया था।
उत्पीड़न का राज्य,
दुःख ही दुःख 
अविराम घात-आघात
आह उत्पात
 निराला की पक्षधरता आमजन के साथ रही। सत्ता के स्वार्थ, सम्मान और पदकों की लालसा से परे वे जन के मन के क्रन्दन को वाणी देते रहे-
अपने मन की तप्त व्यथाएं
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएं |
निराला-रचित कविता वह तोड़ती पत्थरमें दीन-दुखी निर्धन नारी का जो मार्मिक चित्र उन्होंने प्रस्तुत किया है, उससे सर्वहारा वर्ग के प्रति एक करुणामय झलक मिलती है-
वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरुमालिका, अट्टालिका, प्राकार।
उपरोक्त कविता में जिस असमानता और निर्धन वर्ग की दीनता का जिक्र निरालाने किया है, वह असमान, असंगतिभरा विकास आज हमें उदारीकरण की वैश्विक नीति के इस दौर में अपनाये जाने वाली आर्थिक नीतियों के रूप में फलता-फूलता दिखायी दे रहा है। सत्ता के जनघाती चरित्र और पूंजीवादी गठजोड़ को लेकर कविता के माध्यम से जो संकेत प्रसिद्ध कवि सुदामा पांडेय धूमिलने दिये थे कि -‘‘देश के वही आदमी करीब है, जो या तो मूर्ख है या गरीब हैं’, उनके इस कथन का रहस्य आज राडिया टेपों के माध्यम से समझा जा सकता है। इसी तरह के देशद्रोही चेहरों की पहचान महाप्राण सूर्यकांत त्रिापाठी निराला ने नेहरू-काल में इस प्रकार बतायी है-
विप्लव रव से शोभा पाते
अट्टालिका नहीं हैं रे
आतंक-भवन।
निष्कर्षतः निरालाजी अपनी रचनाओं में अपने तत्कालीन परिवेश का ही जिक्र नहीं करते, वे उस दुराचार, पापाचार, भ्रष्टाचार और देशद्रोह की ओर भी भविष्यवाणी-सी करते महसूस किये जा सकते हैं, जो वर्तमान में प्रधानमंत्रियों की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचारियों पर कोई कार्यवाही न करने के रूप में देखा जा सकता है।
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गुरु गोरखनाथ +रमेशराज




गुरु गोरखनाथ

+रमेशराज
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 भक्ति-आन्दोलन से पूर्व योगमार्ग द्वारा धार्मिक आन्दोलन के प्रणेता, अपने युग के सबसे बड़े धार्मिक नेता, महान गुरु गोरखनाथ का आविर्भाव विक्रम संवत की दसवीं शताब्दी में माना जाता है। भारतवर्ष में ऐसी कोई भाषा, उपभाषा या बोली नहीं, जिसमें गुरु गोरखनाथ के सम्बन्ध में कहानियां न पायी जाती हों।
गोरखनाथ का जन्म कहां और कब हुआ, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इनसाइक्लोपीडिया आव् रेलिजन एण्ड एथिक्सके लेखक ग्रियर्सन ने गुरु गोरखनाथ के बारे में बडे़ ही अजीबोगरीब तरीके से लिखा है कि-‘‘गोरखनाथ सतयुग में पंजाब के पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में द्वारका के भी आगे हुरमुज और कलिकाल में काठियावाड़ की चौदहवीं शताब्दी के व्यक्ति थे।’’
 ग्रिर्यसन का यह भी कहना है कि दंतकथाओं और गोरखनाथ पर प्राप्त पुस्तकों के विवरण को आधार बनायें तो गोरखनाथ की बातचीत संत कबीर के साथ-साथ गुरुनानक से भी हुई थी।
ग्रियर्सन जैसे ही अनेक विचारकों के अपुष्ट प्रमाणों पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध आलोचक हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि ‘‘कबीरदास के साथ तो मुहम्मद साहब की बातचीत का ब्यौरा उपलब्ध है तो क्या इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कबीरदास और हजरत मुहम्मद समकालीन थे? वस्तुतः गोरखनाथ को दसवीं शताब्दी का परवर्ती नहीं माना जा सकता।’’
गुरु गोरखनाथ को लेकर पूरे भारतवर्ष में फैली दन्तकथाओं और प्राप्त पुस्तकों के आधार पर यह बात तो निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और अत्यंत महिमान्वित महापुरुष भारत वर्ष में कोई दूसरा नहीं हुआ, जिसके अनुयायी पूरे देश के कोने-कोने में पाये जाते हों। गोरखनाथ के अनुयायी मेखला, श्रृंगी, सेली, गूदरी, खप्पर, कर्णमुद्रा, बघंबर, झोला आदि धारण करते हैं, अलख जगाते हैं, घूनी रमाते हैं। इस प्रकार के जहां असंख्य वैरागी आज भी स्थान-स्थान पर मिल जाते हैं, वहीं नाथमत को मानने वाली बहुत-सी जातियां गृहस्थ-योगी का जीवन भी जी रही हैं। शिमला पहाडि़ायों के नाथ अपने को गुरु गोरखनाथ और भरथरी का अनुयायी मानते हैं। ये कान चिरवाकर कुण्डल ग्रहण करते हैं और उत्तरी भारत के महाब्राह्मणों की तरह श्राद्ध के समय दान पाते हैं। ऊपरी हिमालय में कनफटा नाथनामक ग्रहस्थी योगियों की जाति बसती है। पंजाब में इन्हीं गृहस्थ योगियों को रावलकहा जाता है। ये लोग भीख मांगकर, करतब दिखाकर या हस्तरेखा देखकर अपना जीविकोपार्जन करते हैं। गढ़वाल के नाथभैरव के उपासक हैं और नादी-सेली पहनते हैं। वन्यजीवी जातियां जैसे तांती’, ‘जुलाहे’, ‘गड़रिए’, ‘दर्जीआदि भी नाथयोगी हैं। सूत का रोजगार इनका पुराना रोजगार है। अलईपुरा के जुलाहे ऐसे ही हैं।  द्विवेदीजी ने कबीर को भी ऐसा ही गृहस्थ-योगी बताया है जो गृहस्थ योगीजाति के मुसलमानी रूप में पैदा हुए। बुन्देलखंड के गड़रिये नाथ योगियों के अनुयायी हैं। इनके पुरोहित भी योगी ब्राह्मणहैं। इनके विवाह के मन्त्रों में गोरखनाथ और मछन्दरनाथ का पवित्र स्मरण किया जाता है।
शेख फैजुल्लाह नामक एक बंगाली कवि की पुस्तक गोरख-विजयमें कदली देश की जोगन [ योगी जाति की स्त्री से गोरखनाथ को भुलावा देने के प्रसंग में कहलवाया गया है-‘‘तुम  जोगी हो, जोगी के घर जाओगे, इसमें सोचना-विचारना क्या है। हमारा-तुम्हारा गोत्र एक है। तुम बलिष्ठ योगी हो। फिर क्यों न हम अपना व्यवहार शुरु कर दें। क्यों हम किसी की परवाह करें.. मैं चिकना सूत कात दूंगी। तुम उसकी महीन धोती बुनोगे और हाट में बेचने जाओगे और इस प्रकार दिन-दिन सम्पत्ति बढ़ती जायेगी जो तुम्हारी झोली और कंथा में अंटाए न अंटेगी।’’                   लगभग 600 वर्ष पुरानी इस पुस्तक-गोरख-विजयके इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि ये वन्य जातियां प्राचीन काल से गृहस्थ योगी रही हैं। इन जातियों के वन्य योगीआज भी सूत से अनेक टोटके करते हैं और गोरखधंधे के रूप में सूत से करामात                दिखाते हुए जीविकोपार्जन करते हैं। 1901 की जनगणनानानुसार नाथ सम्प्रदाय के तांती गृहस्थियोंकी बंगाल में           जनसंख्या 772300, कपालियों की 144700, ‘जुगीकी 536600 है। बिहार में तंतवा’ 197900, मध्य भारत में पांका’ 736700 तथा कर्नाटक में  तोगट’, ‘देवांग’, ‘नेगिएजाति के नाथयोगियों की जनसंख्या 3534000 है। उत्तर प्रदेश के नाथयोगी गड़रिये 1272400 हैं। इसके अतिरिक्त पेरिके’, ‘जणपन’, ‘धोर’, ‘गांडा’, ‘डोंबा’, ‘कोरी’, ‘बलाही’, ‘कैकोलन’, ‘साले’, ‘कोष्टी’, ‘धनगर’, ‘कुडुवर’, ‘इडयन’, ‘भरवाड़जाति के नाथ गृहस्थ योगीपूरे भारतवर्ष में पाये जाते हैं। पंजाब की गड्डी जातिभी इसी श्रेणी में आती है।
रिजली ने बंगाल के योगियों की दो श्रेणी बतायी हैं जो मास्थऔर एकादशीकहलाते हैं। रंगपुर जिले के योगियों का काम बुनना, रंगसाजी और चूना निर्माण हैकिंतु अब ये लोग अपना पेशा छोड़ चुके हैं। इन जातियों के स्मरणीय गुरु गोरखनाथ के अतिरिक्त  धीरनाथ और रघुनाथ आदि हैं। इनके बच्चों का कान छेदन किया जाता है और मृतकों को समाधि दी जाती है।
देखा जाये तो इस प्रकार की वैराग्यप्रवण और गृार्हस्थप्रवण नाथ योगी सम्प्रदाय की अनेक जातियां पूरे भारतवर्ष में फैली हुई हैं, जिनके कर्म-राग-संस्कार, रीति-आचरण-व्यवहार में गुरु गोरखनाथ आत्मरूप में वास करते हैं।
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मोबा.- 9359988013

डॉ. अम्बेडकर ने ऐसे लड़ा प्रथम चुनाव +रमेशराज




डॉ. अम्बेडकर ने ऐसे लड़ा प्रथम चुनाव

+रमेशराज
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    डॉ. अम्बेडकर हिन्दू कोड बिलको सन् 1952 के सामान्य चुनाव होने से पहले ही संसद में पारित कराने को बेताब थे। जब उनकी इस इच्छा की पूर्ति में कांग्रेस अवरोध खड़े करने लगी तो 27 सितम्बर 1951 को उन्होंने अपना स्तीफा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह कहते हुये सौंप दिया कि ‘‘संविधान पारित हुए एक वर्ष से अधिक समय हो गया है मगर पिछड़ी व दलित जातियों के हितों की रक्षा हेतु एक आयोग गठित करने की बात तो दूर, सरकार इस मसले पर तनिक भी गम्भीर नहीं है।’’
    स्तीफा देने के बाद अम्बेडकर कांग्रेस से तो अलग हो गये किन्तु वे आगामी आम चुनाव को कैसे लड़ें, जिससे कांग्रेस का एक राष्ट्रव्यापी विकल्प बन सके, इस समस्या को लेकर वे चिन्तित हो उठे। उनकी चिन्ता का मुख्य कारण यह था कि उनके साम्यवादियों से तो मूलभूत मतभेद थे ही, वे हिन्दू सभा से भी समझौता कर कोई चुनावी गठबंधन नहीं करना चाहते थे। इसके साथ ही भले ही वे मुस्लिम लींग के सहयोग से महाराष्ट्र विधान सभा में नियुक्त हुये थे किन्तु वे अब मुस्लिम लींग से मिलकर भी चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। अतः डॉ. अम्बेडकर को चुनावी गठबन्धन के लिए अखिल भारतीय स्तर पर एक ही पार्टी नजर आयी-वह थी जय प्रकाश नारायण की समाजवादी पार्टी।
    7 नवम्बर 1951 को डॉ. अम्बेडकर पटना पहुँचे और पूर्व नियोजित कार्य क्रमानुसार जय प्रकाश नारायण से भेंट की। चुनावी गठबन्धन पर विचार-विमर्श के दौरान यह निष्कर्ष निकाला गया कि चूंकि डॉ. अम्बेडकर के राजनीतिक दल अनुसूचित जाति संघ और झारखंड के राजनीतिक दल सोशलिस्ट पार्टी के कार्यक्रम लगभग समान हैं, इसलिए दोनों पार्टियों में समझौता होना हर प्रकार हितकर होगा। अतः अक्टूबर 1951 में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति की सभा की कार्यकारिणी में पारित चुनाव घोषणा पत्र को ही साझा चुनाव घोषणा-पत्र बनाकर प्रस्तुत किया गया। इस घोषणा-पत्र में कहा गया था-‘‘सभी भारतीयों की समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ संघर्ष करेगा। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को बढ़ावा देगा। मनुष्य से मनुष्य, वर्ग से वर्ग के बीच व राष्ट्र में जो उत्पीड़न और शोषण व्याप्त है, उसके खात्मे के लिए लड़ाई लड़ी जायेगी।’’
    इस घोषणा पत्र के साथ डॉक्टर अम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता, जयपाल सिंह जैसे कई नेताओं ने साझा रणनीति के अन्तर्गत तीव्र गति से चुनावी दौरे किये। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जहाँ अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ और सोशलिस्ट पार्टी के इस गठबंधन को अपनी चुनावी सभाओं में अपवित्र गठबंधनकहा, वहीं डॉ. अम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण, अशोक मेहता ने सशक्त विपक्ष की आवश्यकता पर बल देते हुए लोगों से कांग्रेस को चुनाव के लिए चन्दा न देने की अपील की।
    जनवरी सन् 1952 के राज्य विधान सभा व संसद के चुनाव में डॉ. अम्बेडकर उत्तरी बम्बई की सुरक्षित सीट से चुनाव में खड़े हुये किन्तु जनता ने अनुसूचित जाति संघ व सोशलिस्ट पार्टी के गठबंधन को भारी पराजय के मुँह में धकेल दिया। डॉ. अम्बेडकर एक चुनावी प्रत्याशी काजरोल्कर के मुकाबले पराजित हो गये।
    इस पराजय के उपरांत मार्च 1952 माह के मध्य स्टेट कौंसिल बम्बई की आबंटित सत्तरह सीटों में से एक सीट पर डॉ. अम्बेडकर ने पुनः पर्चा भरा और वह इसी माह के अन्त में वहाँ से निर्वाचित घोषित हुए।
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